जय श्री सच्चिदानंद जी
एक संत थे जिनका नाम था जगन्नाथदास
महाराज। वे भगवान को प्रीतिपूर्वक भजते थे। वे जब वृध्द हुए तो थोड़े बीमार
पड़ने लगे। उनके मकान की ऊपरी मंजिल पर वे स्वयं और नीचे उनके शिष्य रहेते
थे। रात को एक-दो बार बाबा को दस्त लग जाती थी, इसलिए "खट-खट" की आवाज
करते तो कोई शिष्य आ जाता और उनका हाथ पकड़कर उन्हें शौचालय ले जाता। बाबा
की सेवा करने वाले वे शिष्य जवान लड़के थे।
एक रात बाबा ने खट-खटाया तो कोई आया नही। बाबा बोले- "अरे, कोई आया नही ! बुढापा आ गया, प्रभु !"
इतने में एक युवक आया और बोला "बाबा ! मैं आपकी सहायता करता हूं"
बाबा का हाथ पकड़कर वह उन्हें शौचालय मै ले गया। फिर हाथ-पैर धुलाकर बिस्तर पर लेटा दिया।
जगन्नाथदासजी बोले "यह कैसा सेवक है की इतनी जल्दी आ गया ! इसके स्पर्ष से आज अच्छा लग रहा है, आनंद ही आनंद आ रहा है"।
जाते-जाते वह युवक पुनः लौटकर आ गया और बोला "बाबा! जब भी तुम्ह ऐसे
'खट-खट' करोगे न, तो मैं आ जाया करूंगा। तुम केवल विचार भी करोगे की 'वह आ
जाए' तो मैं आ जाया करूँगा"
बाबा: "बेटा तुम्हे कैसे पता चलेगा ?"
युवक: "मुझे पता चल जाता है"
बाबा: "अच्छा ! रात को सोता नही क्या?"
युवक: "हां, कभी सोता हूं, झपकी ले लेता हूं। मैं तो सदा सेवा मै रहता हूं"
जगन्नाथ महाराज रात को 'खट-खट' करते तो वह युवक झट आ जाता और बाबा की सेवा
करता। ऐसा करते करते कई दिन बीत गए। जगन्नाथदासजी सोचते की 'यह लड़का सेवा
करने तुरंत कैसे आ जाता है?'
एक दिन उन्होंने उस युवक का हाथ पकड़कर पूछा की "बेटा ! तेरा घर किधर है?"
युवक: "यही पास मै ही है। वैसे तो सब जगह है"
बाबा: "अरे ! ये तू क्या बोलता है, सब जगह तेरा घर है?"
बाबा की सुंदर समझ जगी। उनको शक होने लगा की कहीं यह मेरे भगवान् जगन्नाथ
तो नहीं, जो किसी का बेटा नही लेकिन सबका बेटा बनने को तैयार है, बाप बनने
को तैयार है, गुरु बनने को तैयार है, सखा बनने को तैयार है...'
बाबा ने कसकर युवक का हाथ पकड़ा और पूछा "सच बताओ, तुम कौन हो?"
युवक: "बाबा ! छोडिये, अभी मुझे कई जगह जाना है"
बाबा: "अरे ! कई जगह जाना है तो चले जाना, लेकिन तुम कौन हो यह तो बताओ"
युवक: "अच्छा बताता हूं" देखते-देखते भगवान् जगन्नाथ का दिव्य विग्रह प्रकट हो गया।
"देवाधिदेव! सर्वलोकेकनाथ ! सभी लोकों के एकमात्र स्वामी ! आप मेरे लिए इतना कष्ट सहते थे ! रात्रि को आना, शौचालय ले जाना, हाथ-पैर धुलाना..प्रभु ! जब मेरा इतना ख्याल रख रहे थे तो मेरा रोग क्यो नही मिटा दिया ?"
तब मंद मुस्कुराते हुए भगवान् जगन्नाथ बोले "महाराज !
तीन प्रकार के प्रारब्ध होते है: मंद, तीव्र और तर-तीव्र । मंद प्रारब्धतो सत्कर्म से, दान-पुण्य से भक्ति से मिट जाता है।
तीव्र प्रारब्ध अपने पुरुषार्थ और भगवान् के, संत
महापुरुषों के आशीर्वाद से मिट जाता है। परन्तु तर-
तीव्र प्रारब्ध तो मुझे भी भोगना पड़ता है।
रामावतार मै मैंने बाली को छुपकर बाण मारा था तो कृष्णावतार में उसने व्याध बनकर मेरे पैर में बाण मारा।
तर-तीव्र प्रारब्ध सभीको भोगना पड़ता है।
आपका रोग मिटाकर प्रारब्ध दबा दूँ, फिर क्या पता उसे भोगने के लिए
आपको दूसरा जन्म लेना पड़े और तब कैसी स्तिथि हो जाय? इससे तो अच्छा है
अभी पुरा हो जाय... और मुझे
आपकी सेवा करने में किसी कष्ट का अनुभव नही
होता, भक्त तो मेरे मुकुटमणि, मैं भक्तन का दास"
बोलिये जय श्री सच्चिदानंद जी
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