जय श्री सच्चिदानंद जी
सद्ज्ञान की जननी मनुष्य की विवेकबुद्धि ही है। बुद्धि यदि परष्कृत है तो यह अपने आप ही सारी शक्तियों का स्त्रोत बन जाती है। जो मनुष्य अपनी बुद्धि का विकास अथवा परिष्कार नहीं करता अथवा अविवेक के वशीभूत होकर बुद्धि के विपरीत आचरण करता है, वह आध्यात्मिकता के उच्च स्तर तक जाना तो दूर साधारण मनुष्यता से भी गिर जाता है। उसकी प्रवृतियां अधोगामी अवं प्रतिगामिनी हो जाती है। वह बहुत तुच्छ नरकीटक का जीवन जीता हुआ उन महान सुखों से वंचित रह जाता है, जो मानवीय मूल्यों को समझने और आदर करने से मिला करते हैं। निकृष्ट व् अधोगामी जीवन से यदि ऊपर उठना है तो प्रत्येक मनुष्य को अपनी विवेकबुद्धि का विकास, पोषण तथा संवर्धन करना चाहिए। अन्य जीव जंतुओं की तरह प्राकृतिक प्रेरणाओं से परिचालित सारहीन जीवन बिताते रहना मानवता का अनादर है, उस परमपिता का विरोध है, जिसने मनुष्य को ऊध्र्वगामी बनने के लिए सभी आवश्यक क्षमताये देने का अनुग्रह किया है।
जय श्री सच्चिदानंद जी
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