जय श्री सच्चिदानंद जी
गुलाब के पुष्प और काँटों में विवाद हो गया। अभिमान भरे स्वर में पुष्प बोला - "क्यों रे कांटे ! तुझे मेरे समीप रहने में क्या तनिक भी लज्जा नहीं आती। ज़रा मेरी सुंदरता तो देख, मुझे सब प्यार करते हैं। मैं मंदिरों में शोभायमान होता हूँ, राजदरबारों में प्रतिष्ठित होता हूँ। कहाँ मैं इतना सम्मानित व्यक्तित्व और कहाँ तू तुच्छ प्राणी। अच्छा होता तू मेरे पास न जन्मा होता।
कांटा बोला - तुम सही कहते हो पुष्पराज ! सौंदर्य अप्रतिम है, पर क्या तुमने कभी सोचा है कि उसकी रक्षा कौन करता है, तुम्हारे इस दर्प को बनाए रखने के लिए हम यहाँ पहरा देते हैं, अन्यथा कोई भी तुम्हें मसलकर रख देता।
काँटे का उत्तर सुन पुष्प का सिर लज्जा से झुक गया।
अहंकारी को दूसरों का सहयोग दिखाई नहीं पड़ता; जबकि सच्ची प्रगति सहकार से ही संभव है।
जय श्री सच्चिदानंद जी
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